तुम उस तूफान से बड़े हो, उस दरिया से भी गहरे हो। सौ साल पुराने उस बरगद के पेड़ से भी विशाल, एक-एक डाल विकराल। सुना था प्रेम प्रवीण होता है, मधुर, कोमल, सुंदर, शालीन होता है। फिर मेरा वाला इतना कठोर कैसे, प्रेम ही है या प्रेम सा कुछ और है ये? यहां ना चाँद से मेरी बराबरी की जाती है, ना तारे तोड़ लाने की बात कही जाती है। गीतों और कविताओं में कहां संवाद होते हैं। कहां पलकों के उठने-गिरने पर लोग बर्बाद होते हैं। यहां वही समावेश है जो संभव है। चल पडूँ मैं कल्पनाओं की ओर कैसे? प्रेम ही है या प्रेम सा कुछ और है ये? दूर है तो दर्द है, पास है तो प्यास है। हाँ, सभी धागों में ये धागा थोड़ा खास है, लेकिन ये आभास है, कि धूप की कोमल किरण नहीं, ये प्रचंड प्रकाश है। यहां वहीं छाव है जहां ताप है। इस जलन में जी सकूंगी जीवन कैसे? प्रेम ही है या प्रेम सा कुछ और है ये? स्वीकार अगर ना भी करूं इस परिवेश को, भेज दूँ प्रेमी को संबंध-विच्छेद संदेश तो, तो भी क्या मन विकल ना होगा, ये विषम बोझ बोझल ना होगा। यहां वहीं सुख है जहां संताप है। समझूँ तो जोड़ूंगी कुछ और पंक्तियाँ फिर से। कि